स्टिग्मा एक ग्रीक शब्द है। समाजशास्त्री इर्विन गॉफमैन ने स्टिग्मा पर एक बेहतरीन पुस्तक लिखी है। उन्होंने इस पुस्तक में इसके बारे में विस्तार से लिखा है। सामाजिक बुराइयाँ अलग-अलग प्रकार की हो सकती है। इसमें आमतौर पर संस्कृति, मोटापा, लिंग, जाति, बीमारी और रोग शामिल हैं। हालांकि निंदित व्यक्ति को यह लग सकता है कि वे आम व्यक्ति से बूरे व्यक्ति में परिवर्तित हो रहा है।
उन्हें दूसरों से अलग माना जाता है और अवहेलना की जाती है। ये आमतौर पर, कार्यस्थल, शैक्षिक सेटिंग्स, अस्पताल, आपराधिक न्याय प्रणाली और यहां तक कि अपने परिवार में भी होता है।
उदाहरण- अधिक वजन वाली लड़की के माता पिता कम वजन वाली लड़की के माता पिता की तुलना में अपने बेटी की कॉलेज फीस भुगतान करने में सक्षम नहीं होते हैं।
इसे एक लेबल के रुप में भी वर्णित किया जाता है, जो व्यक्ति को अवांछित विशेषताओं से संबद्ध करता है और यही स्टीरियोटाइप बनते हैं। यह उस व्यक्ति के साथ जुड़ा होता है। एक बार जब लोग अपनी कमियों को जानने लगते हैं तो वे उसे एक लेबल दे देते हैं और दूसरों को लगता है कि लोग आपको उसी रुप में वर्णित करते हैं और वह व्यक्ति तब तक निंदित रहता है जबतक उसकी इस कमी को ठीक नहीं किया जाता है।
समूह बनाने के लिए सामान्यन की काफी आवश्यकता होती है। इसका अर्थ है कि आप किसी व्यक्ति को एक समूह में डाल में डाल देते हैं, बिना इसके बारे में सोचे कि वह व्यक्ति उस समूह के लिए अनुकूल या नहीं।
समय और विशेषताओं के अनुसार समाज विभिन्न का चयन करता है। एक समाज में जिसे गलत माना जाता है, वह दूसरे के लिए आदर्श हो सकता है।
समाज में व्यक्तियों को कुछ समूहों में वर्गीकृत किया जाता है जिससे निंदित व्यक्ति की प्रतिष्ठा पर आँच आती है और उसके साथ भेदभाव होता है। एक बार जब सांस्कृतिक स्टीरियोटाइप बन जाते हैं, तो समाज उन समूहों से कुछ उम्मीद करने लगता है।
स्टिग्मा निंदित व्यक्तियों के व्यवहार को प्रभावित कर सकता है। स्टीरियोटाइप्ड लोग अक्सर ऐसा व्यवहार करने लगते हैं जैसा कि उनकी निंदा करने वाले लोग उनसे अपेक्षा करते हैं। इससे न केवल व्यवहार में परिवर्तन होता है, बल्कि यह उनकी भावनाओं व विचारों पर भी प्रभाव डालता है। इसके कारण, पहचान के सिद्धांतों पर कई शोध किए गए हैं। पहचान पर खतरा होने का सिद्धांत और लेबलिंग सिद्धांत - दोनों साथ-साथ चल सकते हैं।
सदस्यों को ये पता चलना लगता है कि उनके अलग तरह से व्यवहार किया जा रहा है और उनके साथ भेदभाव होता है। अध्ययन से पता चला है कि 10 वर्ष की आयु तक, अधिकांश बच्चे समाज के विभिन्न समूहों के सांस्कृतिक स्टीरियोटाइप और निंदित समूह के प्रति जागरुक होते हैं। इतनी छोटी उम्र में, वे सांस्कृतिक ढाँचे से अवगत होते हैं।